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सीयूएसबी में 'साहित्य, समाज और मूल्यबोध' विषय पर वेबिनार का आयोजन

दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय (सीयूएसबी) के हिन्दी विभाग द्वारा ‘साहित्य, समाज और मूल्यबोध’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार को ८ तथा ९ अगस्त २०२० को आयोजित किया गया | वेबिनार का आयोजन माननीय कुलपति प्रोफेसर  हरिश्चंद्र सिंह राठौर के संरक्षण में हुआ जबकि हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश चन्द्र ने मुख्य संयोजक की भूमिका निभाई | वहीँ विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ कर्मानंद आर्य वेबिनार के संयोजक थे, जबकि अन्य प्रध्यापकगणों क्रमशः डॉ शांति भूषण, डॉ अनुज लुगुन एवं डॉ रामचन्द्र रजक ने सह संयोजक के तौर पर कार्यक्रम को सफल बनाया |   वेबिनार का उद्घाटन करने के पश्चात माननीय कुलपति महोदय ने अपने उद्बोधन में  कहा की मूल्यों का आत्मसातीकरण साहित्य के द्वारा सम्भव होता है, साहित्यकारों को कला का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। राष्ट्र को सही दिशा में ले जाने का कार्य साहित्य करता है। भारत को विश्व गुरु बनाने में साहित्यकारों की भीत बड़ी भूमिका रही है।अतिथियों का परिचय सह स्वागत करते हुए वेबिनार के मुख्य संयोजक व हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर सुरेश चन्द्र ने कहा कि साहित्य, समाज और मूल्यबोध परस्पर अन्तः सम्बन्धित है । साहित्यकार के साहित्य के माध्यम से समाज को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मूल्यबोध की शिक्षा देतें है, जिससे समाज के अंतर्गत मानव- सभ्यता में निखार आता है । संचालन व धन्यवाद ज्ञापन का दायित्व दोनों दिन डॉ कर्मानंद आर्य ने किया। 

वेबिनार के प्रथम दिवस की अध्यक्षता प्रोफेसर विनय कुमार (अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया,बिहार) ने किया और मुख्य वक्ताओं में प्रोफेसर कृपा शंकर पांडेय ( हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ. प्र.), प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन (अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय), प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ( काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी), प्रोफेसर रत्न कुमार पांडेय (मुम्बई विश्वविद्यालय), प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप ( काशी हिन्दू विश्विद्यालय, वाराणसी), प्रोफेसर नरेंद्र मिश्र (जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय,जोधपुर) ने अपने अपने विचार प्रस्तुत किये।। प्रोफेसर कृपा शंकर पांडेय ने कहा की विज्ञापन की दुनिया में साहित्य की दिशा और दशा बदलती है, साहित्य मनुष्य का चरित्र निर्माण करता है और कविता अपने रचना विधान में ही लोकतांत्रिक होती है।  वह कल्याणकरी मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति गरीबों का शोषण करती है। प्रोफेसर बेचैन ने अपने वक्तव्य में लोकतांत्रिक मूल्यों में   प्रतिबद्धता  वकालत की। प्रोफेसर नरेंद्र मिश्र ने कहा कि लोकतंत्र जब खतरे में आता है , तब साहित्य अपना दायित्व निभाता है।उत्तर आधुनिक समाज मूल्यों की चिंता नहीं करता।  प्रोफेसर अनूप ने कहा की मूल्य मनुष्यता के साथ चलते चले आ रहे हैं।हर युग की अपनी माँग और समस्याएँ होती है। साहित्य समाज से पैदा होता है और वह समाज के लिए होता है। प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ने कहा की साहित्य और मूल्य समाज की उत्पाद हैं। समाज की पहचान ठोस इकाइयों के रूप में होती है, मनुष्य प्रकृति का अंग है। परिवर्तनशीलता मूल्यबोध का स्थायी गुण है।    प्रोफेसर रतन कुमार पांडेय ने कहा कि साहित्य सापेक्ष सत्ता है किंतु आज के साहित्यकारों की चिंता व्यक्तिगत है। आज का साहित्यकार अनुवाद के माध्यम से अपनी वैश्विक पहचान बनाना चाहता है, मूल्यों की चिंता अब उसे कम हो गयी है। अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफेसर विनय भरद्वाज कहते है की धर्म दर्शन के माध्यम से प्रत्येक युग में मूल्यों पर चर्चा की जाती रही है।संघर्ष होता रहा है। यह  ई-संगोष्ठी  समाज को सोचने के लिए बाध्य करेगी। 

वहीँ वेबिनार के दूसरे व अंतिम दिन की अध्यक्षता प्रोफेसर भरत सिंह (हिन्दी विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया, बिहार) ने किया। स्रोत वक्ताओं में प्रोफेसर संजय कुमार ( हिन्दी विभाग, मिजोरम विश्वविद्यालय,आइजोल, मिजोरम), प्रोफेसर सत्यपाल सिंह  चौहान ( अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, सिलचर, असम), प्रोफेसर शिवप्रसाद शुक्ल ( हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय , प्रयागराज), प्रोफेसर शरदेंदु कुमार (पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, पटना विश्वविद्यालय , बिहार),  प्रोफेसर अमरनाथ (पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता  विश्वविद्यालय पश्चिम बंगाल) आदि ने अपने अपने विचार व्यक्त किये। प्रोफेसर शुक्ल ने कहा की अब हमे मदारी की भाषा छोड़ना होगा। आत्मावलोकन करना होगा।साहित्य के दोहरा चरित्र,  क्रीतदास को समझना होगा। लिखते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं,पढ़ते कुछ हैं को त्यागना होगा, तब मूल्यबोध स्थापित होगा। डॉ असंग घोष ने कहा की समस्त विमर्शों को एक साथ ले कर चलेंगे, तभी नये मूल्यों की स्थापना होगी। प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा की भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में मूल्य ‘सत्यं शिवं सुन्दरम’  के रूप में विद्यमान है। जो ‘जियो और जीने दो’ , ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ और ‘सबसे बड़ा सत्य मनुष्य है उसके ऊपर कुछ नहीं’ में विश्वास रखती है। प्रोफेसर चौहान ने कहा कि मूल्य भी स्थायी नही होते तो मूल्यबोध कैसे स्थाई होगें। यही समझना है तो सभ्यता के विकास में जाना होगा। उन्होंने मूल्य के तीन बिंदु बताए- अर्थतंत्र,सत्ता और पुरोहित वर्ग।प्रोफेसर शरदेंदु का कहना है। श्रमिक जातियाँ हमेशा उपेक्षित रहीं, किन्तु यही सबको गति देती रहीं है। मूल्य यहीं बनते  बिगड़ते हैं। इसके अनुसार उन्होंने दो स्थितियों की चर्चा की- भक्तिकाल और लोकतंत्र । प्रोफेसर अमरनाथ ने कहा की सब कुछ परिवर्तनशील है, सब कुछ नश्वर है, मूल्य भी उसी में है।समय के प्रवाह में मूल्य बदलते रहते हैं।पुराने मूल्यों को समाप्त करके नये मूल्यों- समता, स्वतन्त्रता और विश्ववन्धुत्व की रचना की जा सकती है |